बीते दिनों कई बड़ी कंपनियों के शहद में मिलावट पर सीएसई की रिपोर्ट ने खलबली मचा दी बुनियादी सवाल केवल शहद में मिलावट का नहीं है, बल्कि इससे ज्यादा है। सवाल भविष्य के खाद्य पदार्थों के कारोबार की प्रकृतिका है......
इस माह सुर्खियों में आई सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की पड़ताल केवल शहद या इसमें हो रही मिलावट को लेकर नहीं है। यह पड़ताल भविष्य के खाद्य पदार्थों के कारोबार की 'प्रकृति' को लेकर है, क्योंकि प्रकृति में मौजूद जीव हमारी खाद्य व्यवस्था की उत्पादकता के लिए बहुत जरूरी हैं और जो जीव शहद बनाते हैं, वे हमारी सेहत सुधारते हैं।
ये बातें हम जानते तो हैं, लेकिन इनकी अनदेखी कर रहे हैं कि प्रकृति का यह उपहार हम कितनी जल्दी खो सकते हैं। हमें समझना चाहिए कि शहद किसी अन्य खाद्य की तरह नहीं है। इसका इस्तेमाल हेल्थ सप्लीमेंट के तौर पर किया जाता है। इसमें चीनी मिलाना हमारे स्वास्थ्य के लिए इसे सचमुच हानिकारक बनाना है। इसलिए हमें दबाव बनाए रखना चाहिए ताकि प्रकृति के इस उपहार में मिलावट न हो।
चिंता का एक सिरा मधुमक्खियों से भी जुड़ा है। हरबिंगर प्रजाति की ये कीट हमारी खाद्य व्यवस्था के स्वास्थ्य की तरफ संकेत देती हैं। हम जानते हैं कि बिना मधुमक्खी के किसी भी खाद्य का उत्पादन नहीं होगा। समझा जाता है कि फूल देने वाले 90 प्रतिशत पौधों को परागण के लिए मधुमक्खियों की जरूरत पड़ती है। इसके अलावा मधुमक्खियां संकेतक प्रजाति हैं, जो हमें बताती हैं कि हम अपने खाद्यान्न और पर्यावरण को किस तरह जहरीला बना रहे हैं।
ये हमें जहरीले तत्वों और कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल के प्रति आगाह करती रही हैं।
आज बड़े पैमाने पर मधुमक्खी कालोनियों के खत्म होने के पीछे नियोनिक कीटनाशक जिम्मेवार है। नियोनिक ऐसा जहर है, जो कीटाणुओं के तंत्रिका कोष पर हमला करता है। अमेरिका की संसद में मधुमक्खियों के संरक्षण के लिए कानून पेश हो चुका है। इसी साल मई में अमेरिका की एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी ने 12 तरह के नियोनिक्स उत्पादों को प्रतिबंधित कर दिया है, लेकिन दूसरे जहरीले तत्वों का इस्तेमाल अब भी जारी है।
पर्यावरण में जहरीले तत्वों की वजह से मधुमक्खी पालकों को व्यवसाय में घाटा हो रहा है, जिससे वे अपनी दुकान बंद कर रहे हैं। इसके लिए हमें चिंतित होना चाहिए, क्योंकि आधुनिक मधुमक्खी पालन सिर्फ हमारे भोजन तक ही सीमित नहीं, बल्कि एक औद्योगिक स्तर की गतिविधि है जिस पर विमर्श करने की जरूरत है। मधुमक्खियों से जुड़ी जैव विविधता भी एक मुद्दा है। दुनियाभर में जैव विविधता संरक्षण का सिरमौर यूरोपीय संघ अपने यहां के शहद को एपिस मेलिफेरा उत्पादित शहद के रूप में परिभाषित करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यूरोपीय संघ में जो शहद बिकता
है, उस शहद का उत्पादन दूसरी कोई भी मधुमक्खी ■ नहीं कर सकती। इसी तरह भारत में एपिस सेराना ■ (भारतीय मधुमक्खी) या एपिस डोरसाता (पहाड़ी i मधुमक्खी) है। अगर इन मधुमक्खियों के शहद को अलग नहीं किया जा सकता, इन प्रजातियों को बढ़ावा नहीं दिया जाता और इनकी संख्या नहीं बढ़ती है तो क्या होगा ?
बड़ा सवाल ये भी है कि उत्पादन और प्रसंस्करण से हम क्या समझते हैं? ज्यादातर मामलों में शहद 'प्रसंस्कृत' होते हैं। यह प्रक्रिया पैथोजेन हटाने और लंबे समय तक शहद सुरक्षित रखने के लिए अपनाई जाती है। इस तरह के प्रसंस्कृत शहद के लिए सुरक्षा और शुद्धता के मानदंड तैयार किए जाते हैं, लेकिन क्या असल में जो शहद है, उसके लिए ये मानदंड काम करते हैं? इसके साथ सवाल उठता है कि क्या दुनियाभर में लाखों लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ये अपना उत्पादन बढ़ा सकते हैं? बुनियादी सवाल केवल शहद में मिलावट का नहीं है, बल्कि इससे ज्यादा है। सवाल भविष्य के खाद्य पदार्थों के कारोबार की प्रकृति का है।
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