जंतु व्यवहार ,बचपन के दिनों में अन्य बच्चों की तरह मेरा सहज लगाव भी जीव-जंतुओं से था ? मनीष मोहन गोरे द्वारा लिखित पुस्तक कि कहानी।।। भाग -2
जंतु व्यवहार,बचपन के दिनों में अन्य बच्चों की तरह मेरा सहज लगाव भी जीव-जंतुओं से था ? मनीष मोहन गोरे द्वारा लिखित पुस्तक कि कहानी।भाग-2
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जंतु व्यवहार,बचपन के दिनों में अन्य बच्चों की तरह मेरा सहज लगाव भी जीव-जंतुओं से था ? मनीष मोहन गोरे द्वारा लिखित पुस्तक कि कहानी।भाग-1
◉‿◉ अपनी बात Part -2 ◉‿◉
मानव सभ्यता के विकास के पहले चरण में प्राकृतिक परिवेश में जब पहली यार आदि मानवों का सामना अपने चारों ओर जंतुओं से हुआ होगा तो उनसे अपने बचाव या उनके शिकार के लिए उन्होंने सबसे पहले उन जंतुओं की आदतों और सामान्य व्यवहार को निहारा होगा। मेरी दृष्टि से जंतु व्यवहार या इथोलॉजी का आरंभ उसी समय से माना जा सकता है। चूंकि प्राचीन काल में वे अध्ययन न तो क्रमबद्ध रूप से विकसित हुए और न ही लिपिबद्ध हो सके इसलिए वह प्रामाणिक नहीं बन पाये।
जंतु व्यवहार विज्ञान एक सुव्यवस्थित वैज्ञानिक शाखा के रूप में बीसवीं शताब्दी में स्थापित हुआ (1973 ई. में जंतु व्यवहार पर शोध कार्य हेतु जब कोनरेड लॉरेंज, निको टिनबर्जन और कॉल वॉन फ्रिश नामक तीन वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार दिया गया), परन्तु मेरी समझ में इस विधा पर दुनिया के हर हिस्से में असंख्य जीव प्रेमी हर काल खंड में सतत् रूप से काम करते रहे हैं।
ग्रीक दार्शनिक अरस्तू (384 322 ईसा पूर्व) ने आज से लगभग 2400 साल पहले हिस्टोरिया एनिमेलियम (जंतुओं का इतिहास) नामक पुस्तक में असंख्य छोटे-बड़े जंतुओं के नाम, लक्षण और उनके सामान्य व्यवहार का वर्णन किया था।
प्राकृतिक चयन के अपने सिद्धांत से पूरी दुनिया में हलचल पैदा करने वाले वैज्ञानिक चार्ल्स डार्बिन ने भी 1872 में दि एक्सप्रेशन ऑफ दि इमोशंस इन मैन एंड एनिमल्स शीर्षक पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होंने जंतुओं के विभिन्न मनोदशाओं और व्यवहार का विस्तृत एवं वैज्ञानिक वर्णन किया था।
डॉ मनीष मोहन गोरे ...........
जंतु व्यवहार के क्षेत्र में अरस्तू और डार्विन के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। वहीं दूसरी तरफ आधुनिक संदर्भ में जॉर्ज रोमानेस, ऑस्कर होनरॉथ, कोनरेड लॉरेंज, निको टिनबर्जन, कार्ल वॉन फ्रिश, बी. एफ. स्किनर, ए.ओ. विल्सन और डेसमंड मॉरिस जैसे जंतु व्यवहार वैज्ञानिकों के इस दिशा में योगदान सर्वधा उल्लेखनीय हैं। भारतीय संदर्भ में सालिम अली, सुरेश सिंह और राघवेन्द्र गडगकर ने जंतु व्यवहार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए हैं।
जंतुओं की हरकतों और उनके व्यवहार के कारण ही अधिकांश लोगों की रुचि इनमें बढ़ती है। प्रत्येक जंतु का व्यवहार दिलचस्प और अनोखा होता है। अगर हम प्रकृति में गौर से देखें तो यह पाएंगे कि हर एक जंतु अपने पृथक आवास क्षेत्र में रहता है और उसे अपने चारों ओर मौजूद अनेक जीवित तथा अजीवित वातावरण के अनुसार स्वयं को ढालते रहना पड़ता है। इस दौरान प्रत्येक जंतु का उसका अपना व्यवहार उसे विशिष्ट वातावरण या परिस्थिति में जीवित बचे रहने में मदद करता है। इनमें से अधिकांश व्यवहार जीनों (वंशाणुओं) में पहुंचकर एक से दूसरी पीढ़ी में पहुंचने लगते हैं और एक आनुवंशिक लक्षण या व्यवहार का दर्जा हासिल कर लेते हैं। ये व्यवहार जीव विकास को भी प्रभावित करते हैं या दूसरे अर्थों में कहें कि जीव विकास जंतुओं के व्यवहारों द्वारा भी निर्देशित होते हैं। उदाहरण के लिए सरीसृप वर्ग के जंतु सांप के पूर्वजों में अन्य सरीसृपों के समान रेंगने के लिए पैर हुआ करते थे लेकिन सुरंग में रहने के कारण इन्होंने अपना व्यवहार बदलकर सुरंग में आते-जाते समय अपने पैरों का इस्तेमाल बंद कर दिया। उनके इस व्यवहार से उनके पैर बेकार हो गए और अनेक पीढ़ियों के बाद ये लुप्त हो गए।
वास्तव में व्यवहार जंतु की हर एक प्रजाति को विशिष्ट पहचान होती है। जैसे प्रत्येक प्रजाति के पक्षियों के गीत गाने का ढंग अलग होता है; हर मेंढक प्रजाति दूसरे से भिन्न ध्वनि उत्पन्न करती है। जंतुओं के व्यवहार मूलतः उनके शरीर में मौजूद हार्मोन द्वारा प्रतिफलित होते हैं।
जंतु व्यवहार दरअसल एक बेहद दिलचस्प विषय है। जंतुओं के विभिन्न व्यवहारों खासकर उनके सामाजिक व्यवहार से हम मनुष्यों को एक नई दृष्टि मिलती है।
यह पुस्तक जंतु व्यवहार के साथ मेरे लंबे रिश्ते का एक माध्यमिक पड़ाव है। लोकप्रिय विज्ञान लेखन के मेरे सफर की शुरूआत साहित्यानुरागी पिता की प्ररेणा से करीब पंद्रह वर्ष पहले हुई थी। जंतु व्यवहार के रोचक पहलुओं पर एक संक्षिप्त लेखमाला की रचना 1999 में मैंने और एक अन्य विज्ञान लेखक ने संयुक्त रूप से की थी, मगर मुझे महसूस होता था कि उसमें संपूर्णता की व्यापक कमी है। इस कमी को पूरा करने के लिए मैंने उस रचना से एकदम अलग हटकर जंतु व्यवहार पर एक नई दृष्टि डालने का प्रयास इस पुस्तक के रूप में किया है। इस प्रयास में मैं कितना सफल हुआ हूँ इसका निर्णय करने वाले आप सभी सुधी पाठकगण हैं। इस पुस्तक लेखन के दौरान मैंने अनेक स्रोतों का अध्ययन किया जिनका विवरण संदर्भ में दिया गया है। में उन सबके प्रति आभार व्यक्त करता हूं। आम पाठकों के साथ-साथ यदि विज्ञान (खासकर जंतु विज्ञान) के विद्यार्थी इस पुस्तक का स्वागत करते हैं तो मैं समझंगा कि मेरा यह प्रयास सार्थक हुआ।
30 नवंबर, 2010
- मनीष मोहन गोरे
The End. 🔚
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